कुल्लू का श्री रघुनाथ जी मंदिर, जहां अयोध्या से लाया गया था भगवान राम जी की मूर्ती को| 4K | दर्शन 🙏
भक्तों! सादर नमन, वंदन और अभिनन्दन.... भक्तों! हिमाचल प्रदेश को देवताओं की भूमि कहा जाता है। जो निसंदेह पृथ्वी पर स्वर्ग से कम नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह से प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा हुआ है और इसका अपना समृद्ध पौराणिक अतीत है। कई पर्यटन स्थलों के साथ ही यहाँ अनगिनत प्रसिद्ध व आकर्षक तीर्थस्थल और मंदिर भी हैं जो दुनिया भर के भक्तों, तीर्थ यात्रियों तथा पर्यटकों के श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र हैं। उन्ही मंदिरों की शृंखला में शामिल है कुल्लू का श्री रघुनाथ जी का मंदिर.
मंदिर के बारे में:
भक्तों कुल्लू के रघुनाथ जी का प्राचीन मंदिर सुल्तानपुर में राजमहल के साथ स्थित है। शिल्प की दृष्टि से यह मंदिर उतना अद्भुत तथा महत्वपूर्ण नहीं है जितने कि इस घाटी में स्थित अन्य मंदिर हैं। लेकिन इस मंदिर का कुल्लू के इतिहास एवं धर्म के क्षेत्र में विशेष महत्व है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के अंतरराष्ट्रीय दशहरे का आगाज भी भगवान रघुनाथ की रथयात्रा के साथ ही होता है। कुल्लू दशहरा सात दिनों तक चलता है।
मंदिर का इतिहास
भक्तों रघुनाथ जी मंदिर कुल्लू का इतिहास के बारे कहा जाता है कि विक्रम संवत 1637 से 1662 तक कुल्लू में राजा जगतसिंह का शासन था। रघुनाथ जी मंदिर का निर्माण राजा जगतसिंह के शासनकाल में हुआ था।
मंदिर निर्माण से जुड़ी रोचक कथा:
भक्तों इस मंदिर के निर्माण एवं इस मंदिर में प्रतिष्ठित रघुनाथ जी की मूर्ति के साथ एक अत्यंत रोचक कथा जुडी है। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह के शासन काल में कुल्लू के टिपरी गाँव में एक ब्राह्मण दुर्गादत्त अपने परिवार सहित रहता था। यह ब्राह्मण विद्वान था। जिसके पास लोग आते जाते रहते थे। इसी कारण राजा के कुछ दरबारी उससे ईर्ष्या रखते थे। एकदिन राजा मणिकर्ण की यात्रा पर जा रहे थे तो ब्राह्मण से ईर्ष्या रखनेवाले दरबारी राजा का कान भरते हुये ब्राह्मण की पास वेशकीमती मोतियों का खजाना होने की शिकायत की। राजा ने मोती जप्त करने के लिए दो सिपाहियों को ब्राह्मण के पास भेजा। ब्राह्मण ने सहज भाव से मोतियों के बारे अनभिज्ञता जताई और प्रशासन को गलतफहमी होने की आशंका व्यक्त की। लेकिन राजा के सिपाही ब्राह्मण की बात सुनने को राजी नहीं थे तब ब्राह्मण ने अपनी सिपाहियों से अपनी जान छुड़ाते हुये राजा के मणिकर्ण से लौटने पर मोती देने का वादा कर दिया।
ब्राह्मण का सपरिवार आत्मदाह:
भक्तों मणिकर्ण से वापसी पर राजा टिपरी के ब्राह्मण के झोपड़ी के पास पहुंचा तो ब्राह्मण ने सपरिवार आत्मदाह करने के उद्देश्य से झोपड़ी में आग लगा ली। उसने आग में जलते अपने शरीर के मांस के लोथड़े को राजा की ओर फेंकते हुये कहा कि राजन ये मोती ले लो... और अपना प्राणान्त कर लिया। यह देखकर राजा अत्यधिक दुखी हुआ। उसके सामने हमेशा ये दृश्य आने लगा। अब न राजा की आँखों में नींद थी और न दिल में सुकून...
राजा पर ब्रह्मह्त्या का दोष:
भक्तों एक दिन राजा भोजन कर रहा था तो उसे भोजन में कीड़े और पानी में खून नजर आने लगा। यहाँ तक कि उसकी अंगूठी में भी कीड़ा लग गया। इतना ही नहीं राजा जगतसिंह को कई असाध्य कुष्ठ रोग ने घेर लिया। राजा ने इनसे मुक्ति के कई उपाय किये पर कुछ न हुआ। तब राजा झिड़ी नामक स्थान में रहनेवाले त्रिकालदर्शी महात्मा पास गया। महात्मा ने राजा को ब्राह्मण हत्या दोषी बताया। महात्मा ने राजा को ब्रह्महत्या से मुक्ति हेतु आयोध्या से भगवान राम की मूर्ति लाने, मंदिर बनवाने और उनकी आराधना करने को कहा। राजा के लिए राम भक्त बनना आसान था लेकिन अयोध्या से मूर्ति लाना संभव न था। अतः राजा ने महात्मा से सहायता मांगी। राजा के अनुरोध पर महात्मा ने अपने शिष्य दामोदर को मूर्ति लाने हेतु अयोध्या भेज दिया।इन मूर्तियों को देखकर महात्मा और राजा बहुत खुश हुये। इन मूर्तियों को विक्रम संवत 1653 में मणिकर्ण मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया।
शापित राजा रामभक्त बने:
भक्तों विक्रम संवत 1660 में कुल्लू राजमहल के पास स्थित इस मंदिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ। तब श्रीराम जानकी जी की मूर्तियों को मणिकर्ण से लाकर विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया। राजा जगतसिंह ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने। कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना इष्ट मान लिया। कहा जाता है इसके बाद राजा जगतसिंह को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई।
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Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. यहां यह बताना जरूरी है कि तिलक किसी भी तरह की मान्यता, जानकारी की पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.
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