पांडव नव-वधु द्रौपदी को लेकर हस्तिनापुर पधारे | श्री कृष्ण | दिव्य कथाएँ
"धृतराष्ट्र और गांधारी को जब विदुर को यह पता चलता है कि पाँचों पांडव जीवित है, लाक्षागृह में मिले कंकाल किसी और के थे तथा वे द्रुपद के मेहमान है और द्रौपदी का विवाह पाँचों पांडवों के साथ हो गया है। उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती है और वे पुत्रवधू समेत कुंती, पांडवों व श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर आने का न्यौता भेजते हैं। लेकिन दुर्योधन को यह समाचार रास नहीं आता है और वह अपना सारा गुस्सा मामा शकुनि पर निकालते हुए कहता है कि आप जो चाल चलते है, उसका फल उल्टा मिलता है। शकुनि दुर्योधन को समझाते हुए कहता है कि अब वह राजनीति की आखिरी चाल चलेगा, पांडवों को बुलाने वाला दूत पांचाल देश नहीं पहुँचेगा। वही दूसरी तरफ पांचाल नरेश को हस्तिनापुर से कोई संदेशा न आने पर चिंतित हो उठते है। उन्हें चिंता ग्रस्त देख श्री कृष्ण उनसे कहते है कि मेरे रहते कोई भी अन्याय नहीं हो सकता है, कोई की हम युक्ति से ही नहीं शक्ति से पांडवों का अधिकार दिलाने में समर्थ है। हमें एक-दो दिन प्रतीक्षा करनी चाहिए, तत्पश्चात हम स्वयं महाराज द्रुपद के हस्तिनापुर जाकर उनकी राजसभा में पांडव का पक्ष प्रस्तुत करेंगे। तभी हस्तिनापुर का एक दूत महाराज धृतराष्ट्र की ओर से भेजे गये उपहार प्रस्तुत करते हुए पाण्डवों, द्रौपदी व कुंती हस्तिनापुर चलने का निमंत्रण देता है। द्रुपद श्रीकृष्ण को अपनी पुत्री के साथ भाई-बहन का नाता जोड़ने के कारण उन्हें भी पांडवों के साथ हस्तिनापुर जाने की विनती करता है, जिसे वह स्वीकार कर लेते है। हस्तिनापुर में अपनी कुंती, पांडवों, नव-वधु द्रौपदी और श्री कृष्ण का भव्य स्वागत किया जाता है।
एक दिन श्री कृष्ण से मिलने के लिए पधारे नारद मुनि प्रार्थना करते हुए उन्हें बताते है कि माता महालक्ष्मी ने उनकी सेवा के लिए रुक्मिणी के रुप में अवतार लिया है और उन्हें विश्वास था उनके पिता विदर्भ नरेश भीष्मक द्वारा कराए जा रहे स्वयंवर में आप पधार कर उनका वरण कर लेंगे, परन्तु अब उनका बड़ा भाई रुक्मि स्वयंवर न करा कर उनका विवाह अपने मित्र शिशुपाल से कराना चाहता है। अतः यदि आपने देवी रुक्मिणी का उद्धार नहीं किया तो वह अपने प्राण त्याग देंगी। नारद जी भावुक होकर यह भी कहते है कि आपके रामावतार के समय सीता के रूप में अवतरित हुई माता लक्ष्मी को पूरे जीवन दुख ही दुख उठाने पड़े थे। यह सुन श्रीकृष्ण भी भावुक होते हुए कहते है कि आप उलाहना क्यों दे रहे हैं, मैं उस जीवन में उनसे भी अधिक दुखी रहा। नारद मुनि अपने शब्दों के लिए क्षमा माँगते हुए बताते है कि यह आपकी और माता लक्ष्मी के प्रति भक्ति का परिणाम है। वही जहाँ एक तरफ रुक्मिणी माँ गौरी के मन्दिर में प्रार्थना करती है कि यदि आप मेरा हाथ पकड़ कर श्रीकृष्ण जी के चरणों तक नहीं पहुँचा सकती हैं तो धर्मराज से कह दें कि मेरी मृत्यु के द्वार खोल दें ताकि मैं उस द्वार को पार करके सीधे उनके पास पहुँच जाऊँ। वही दूसरी तरफ विदर्भ के राजमहल में रुक्मिणी के विवाह की योजना बनाई जा रही थी। जहाँ राजपुरोहित कहते है कि रुक्मिणी एक दिव्य कन्या है, उसका विवाह ब्रह्मा जी ने पहले से ही श्री कृष्ण के साथ निर्धारित कर रखा है। जहाँ सभी रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण के साथ करने के पक्ष में होते है, वही युवराज रुक्मि रुक्मिणी का विवाह जरासंध के दत्तक पुत्र और अपने मित्र शिशुपाल से कराना चाहता है। रुक्मि कहता है कि रुक्मिणी का विवाह कृष्ण जैसे डरपोक से नहीं, शिशुपाल से होगा, क्योंकि राजपरिवारों में विवाह राजनीतिक संतुलन बनाने के लिए किए जाते है।
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