रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 27 - नारद मुनि का कंस को भगवान विष्णु की शरण में जाने का सुझाव
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बजरंग बाण | पाठ करै बजरंग बाण की हनुमत रक्षा करै प्राण की | जय श्री हनुमान | तिलक प्रस्तुति 🙏
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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 27 - Narada Muni advised Kansa to go to the shelter of Lord Vishnu
श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठा लेने की सूचना मथुरा नरेश कंस तक पहुँचती है। वह अचरज में पड़ जाता है लेकिन वह कुपित भी है कि उसे यह सूचना विलम्ब से क्यों दी जा रही है। तब गुप्तचर नायक उसे बताता है कि घटना वाले दिन आँधी तूफान और यमुना में बाढ़ आने के कारण कोई गुप्तचर गोकुल नहीं जा पाया था। मौसम सामान्य होने पर जब गुप्तचर गोकुल पहुँचे तब उन्हें इस बात की जानकारी हुई। कंस को विश्वास नहीं हो पाता है कि कोई मानव अपनी उँगली पर पर्वत उठा सकता है। वो दरबारियों से कहता है कि उसने सुन रखा है कि पूर्वकाल में हनुमान ने अपने हाथों से पहाड़ उखाड़ कर ले आये थे। किन्तु हनुमान मानव नहीं, वानर था। तब कंस का एक मंत्री चाणुर कहता है कि हनुमान की कहानी की तरह कृष्ण द्वारा पर्वत उठाना भी एक कहानी ही है। इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वह कहता है कि यह कहानी देवताओं के एक षडयन्त्र के तहत फैलायी जा रही है। आकाशवाणी के अनुसार विष्णु अवतार को बड़ा होने तक छिपा कर रखा जाना था। इसीलिये देवताओं ने षडयन्त्र रचा है कि महाराज कंस कृष्ण के विष्णु अवतार होने के भ्रम में उसके पीछे लग जाऐं और असली विष्णु अवतार कहीं छिप कर बड़ा होता रहे। उसी शाम मदिरापान के दौरान बाणासुर भी मंत्री चाणुर की बात का समर्थन करता है। कंस को विश्वास होने लगता है कि कृष्ण विष्णु अवतार नहीं बल्कि एक सामान्य बालक है। इसी समय नारद का कंस के महल में प्रवेश होता है। नारद कंस द्वारा दिये गये आसन को अस्वीकार करते हुए कंस को समझाते हैं कि वो भ्रम में न पड़े। अष्टभुजा देवी ने उसे मारने के लिये जिस बालक के जन्म लेने की भविष्यवाणी की थी, कृष्ण वही अवतारी बालक हैं। कंस नारद से पूछता है कि वह उसका हितरक्षक क्यों बनना चाहते हैं। तब नारद कहते हैं कि महाराज कंस को अपना पथ सुधार कर भगवान की शरण में चले जाना चाहिये। कालिया नाग को नाथने वाला और गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले को कंस साधारण बालक समझने की भूल न करे, यही समझाने के लिये वो आये हैं। इस पर बाणासुर कहता है कि कृष्ण ने ऐसा कोई कारनामा नहीं किया है। यह सब गोकुल के साधारण ग्वाल बालों का दृष्टिभ्रम है। यदि कृष्ण ने यह दृष्टिभ्रम मथुरा में कर दिखाया होता तो यहाँ के तान्त्रिक उसका छल पल भर में तोड़ देते। नारद एक बार पुनः कंस और बाणासुर से कहते हैं कि वे अपने मृत्यु के भय से बाहर निकले। जिस भय से उसने एक बार मथुरा के सभी नवजात शिशुओं को मार डालने का आदेश दिया था और जिस भय से वो हर रोज जीता मरता है। उससे बाहर निकलने का एक ही मार्ग है कि वो सच्चिदानन्द प्रभु की शरण में चला जाये। नारद मुनि बाणासुर की इन आशंकाओं को भी दूर करते हैं कि विष्णु के पास जाने से कंस को कोई हानि पहुँचेगी। वह कहते हैं कि ऐसा स्वयं भगवान विष्णु ने कहने के लिये उन्हें कंस के पास भेजा है। बाणासुर कंस को पुनः भड़काते हुए कहता है कि विष्णु ने यह चाल कंस को एक निरीह प्राणी की भाँति अपनी शरण में लाने के लिये चली है। इसके बाद कंस और बाणासुर भगवान विष्णु का दूत बनकर आये नारद का अपमान करते हैं। नारद क्षीर सागर में भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित होते हैं और कंस के अहंकार के बारे में बताते हैं। विष्णु इसे महामाया का खेल बताते हैं और कहते हैं कि मायामाया जो खेल कर रही हैं, उन्हें करने दो। आकाश में महामाया भी भगवान की बात सुनकर खिलखिलाती हैं। नारद प्रभु के समक्ष अपनी चिन्ता व्यक्त करते हैं कि कहीं कंस देवकी और वसुदेव को यातनाऐं देना बढ़ा न दे। तब विष्णु नारद के इस भोलेपन पर मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि उनकी रक्षा स्वयं उनका धर्म कर रहा है। उधर एक दिन अक्रूर अपना वेश बदलकर वसुदेव और देवकी को भोजन देने के बहाने कारागार में जाते हैं। वह उन दोनों को बेड़ियों में जकड़ा देखकर दुखी होते हैं। वह उन्हें बताते हैं कि रोहणी बलराम की विद्यार्जन को लेकर चिन्तित हैं। वह पुत्र को शस्त्र और शास्त्र विद्या दोनों में निपुण करना चाहती हैं लेकिन वसुदेव कहते हैं कि इससे बलराम की राजकुल के होने की पहचान उजागर हो जाने का खतरा है। तब अक्रूर एक उपाय सुझाते हैं कि बलराम को गोकुल से निकाल कर किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाया जाय और वहाँ उन्हें दीक्षित किया जाय। अक्रूर कहते हैं कि बलराम को एक दिन राजा बनना है इसलिये बलराम को शस्त्र और शास्त्रों का ज्ञान होना आवश्यक है। वह यह भी कहते हैं कि नन्दराय भी इससे सहमत हैं। तब देवकी अपने पुत्र कृष्ण की शिक्षा के बारे में चिन्तित हो उठती हैं। तब अक्रूर कहते हैं कि कृष्ण के जन्म रहस्य से केवल हम तीन ही परिचित हैं इसलिये नन्दराय उसे अपना बेटा समझते हैं और कहते हैं कि एक ग्वाले का शस्त्र-शास्त्र की विद्या से क्या लेना देना। उसे तो गो-पालक ही बनना है। अतएव वह उसे अपने साथ ही रखना चाहते हैं। देवकी इस पर रोने लगती हैं। तब अक्रूर उन्हें दिलासा देते हैं कि कृष्ण के कारनामों से कंस भी अचम्भे में हैं और ऐसे में उन्हें साधारण ग्वालबाल बने रहने में ही उनका हित है। समस्त मंत्रणा के बाद वसुदेव अपना निर्णय सुनाते हैं कि बलराम को कहीं अलग नहीं भेजा जायगा। दोनों भाई साथ रहेंगे। बलराम गोकुल रहकर चुपचाप शिक्षा ग्रहण करें और कृष्ण गैया चरायें। माता देवकी इस निर्णय से प्रसन्न होती हैं और कहती हैं कि उनका कान्हा तो अनपढ़ रहकर मुरली बजाता ही अच्छा रहेगा।
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