रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 31 - कंस की धनुर्यज्ञ योजना
भक्त को भगवान से और जिज्ञासु को ज्ञान से जोड़ने वाला एक अनोखा अनुभव। तिलक प्रस्तुत करते हैं दिव्य भूमि भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों के अलौकिक दर्शन। दिव्य स्थलों की तीर्थ यात्रा और संपूर्ण भागवत दर्शन का आनंद।
Watch the video song of ''Darshan Do Bhagwaan'' here - https://youtu.be/j7EQePGkak0
Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 31 - Kansa's plan of Dhanur Yagya
श्रीकृष्ण और राधा की महारास लीला के दृश्यों के साथ इसके गूढ़ अर्थ से परिचित कराया जाता है। श्रीकृष्ण यानि परमात्मा और राधा यानि आत्मा। रासलीला आत्मा और परमात्मा का ऐसा मिलन है जिसमें आत्मा को ऐसा अहसास होने लगता है कि मानों वह ही परमात्मा है। जब आत्मा का अपना अस्तित्व परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाता है तब आत्मा विलुप्त हो जाती है और शेष रह जाता है परमात्मा। निर्देशक रामानन्द सागर भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन को उद्धृत करते हुए बताते हैं कि उन्होंने भक्ति की व्याख्या करते हुए मेडिटेशन और डिवोशन में अन्तर किया है और कहा है कि उपासना को भक्ति नहीं कहते हैं बल्कि भक्ति तो प्रेम का एक स्वरूप है और राधा जी तो प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं। निर्देशक के इस व्याख्यान के बाद धारावाहिक की कथा आगे बढ़ती है। कंस अपने महल में सोया पड़ा है लेकिन उसे भयावह स्वप्न आते हैं। उस दिखता है कि अनेक पिशाच अपने अस्त्र शस्त्र लेकर उसके चारों तरफ मण्डरा रहे हैं और डरावने नृत्य कर रहे हैं। पिशाच उसे मारना चाहते हैं। एक पिशाच ने अपनी तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और कटा हुआ सिर आकाश की ओर उड़ गया है। भयभीत कंस की आँख खुल जाती है। वह अपने बिस्तर उठ बैठता है। खुली आँखों से उसे भगवान विष्णु का चतर्भुज रूप दिखायी पड़ता है। वो अपनी आँखें मलता है और दूसरी दिशा में देखता है तो उसे उधर भी विष्णु दिखते हैं। कंस और भी भयभीत हो जाता है। उसकी चीख सुनकर पहरेदार वहाँ आ जाते हैं। कंस अगले दिन राजसभा बुलाता है। बाणासुर कंस को युद्धनीति बताता है और कहता है कि शत्रु को डराने से उसकी शक्ति आधी क्षीण हो जाती है। इसलिये उन्हें अपने हृदय से डर बाहर निकाल फेंकना चाहिये। लेकिन कंस कृष्ण के चमत्कारों से इतना भयभीत है कि वह उनके हाथों से मारे जाने की बजाय आत्महत्या करने की बात कहने लगता है। तब कंस के महामंत्री चाणुर कहता है कि उसने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के परम शिष्य ऋषि सत्यक को राजसभा में बुलाया है जो उनके हित की रक्षा करेंगे। कंस को सम्बल मिलता है। ऋषि सत्यक कंस से महेश्वर का धनुर्यज्ञ करने का परामर्श देता है। वह बताता है कि भूतनाथ द्वारा प्रदत्त धनुष के माध्यम से यह धनुर्यज्ञ सम्पन्न होगा। कंस इस धनुष का ठिकाना पूछता है। तब सत्यक बताता है कि पूर्वकाल से मथुरा के राजकुल के पास है और इस समय कंस के ही गुप्त कोष में रखा है जिसका उसको ज्ञान नहीं है। भगवान त्रिपुरारी ने इसी धनुष से त्रिपुरासुर का वध किया था फिर अनेक हाथों से होता हुआ यह मथुरा के राजकुल के पास पहुँचा है। सत्यक बताता है कि भगवान शंकर के ऐसे दो ही धनुष थे। एक त्रेतायुग में भगवान राम के द्वारा तोड़ा गया था और दूसरा मथुरा के राजकुल के पास अभी भी सुरक्षित है। सत्यक कंस से कहता है कि यह धनुर्यज्ञ निर्विघ्न हो सकी तो वह अपराजेय हो जायगा। किन्तु यदि यज्ञ भंग हो गया तो यजमान का विनाश हो जायेगा। कंस असमंजस में पड़ता है तो सत्यक कहता है कि शिव के इस धनुष को तोड़ने की शक्ति केवल विष्णु के पास है इसलिये वह निश्चिन्त रहे। बाणासुर धनुर्यज्ञ में कृष्ण को भी आमंत्रित करने का परामर्श देता है। उसकी मंशा है कि यज्ञ से सिद्धि प्राप्त होते ही कंस कृष्ण का वध भी कर दे। कृष्ण वध के तमाम तरीकों पर भी विचार होता है। उन्हें मतवाले हाथी के पैरों तले कुचलवाने, मल्लयु़द्ध में पहलवानों के हाथों मरवा देने अथवा स्वयं कंस की खड्ग से शीश उतार देने के सपने कंस सभा में पिरोये जाने लगते हैं। किन्तु अब समस्या यह आन पड़ती है कि कृष्ण को किसके जरिये आमन्त्रित किया जाय। कंस का मंत्री चाणुर अक्रूर के माध्यम से कृष्ण को बुलाने का सुझाव देता है। कंस को संशय है कि अक्रूर राजभक्त है, वह ऐसा नहीं करेगा। चाणुर अक्रूर को प्रलोभन देने का सुझाव देता है। कंस अक्रूर को बुलवाता है। अक्रूर के आने पर कंस उनसे कहता है कि वह सभी यदुवंशी सरदारों के बीच के मतभेद दूर कर उनमें एकता स्थापित करना चाहता है ताकि यदुवंश समृद्धशाली हो सके। इसके लिये वह अक्रूर को मथुरा आधीन एक राज्य का राजा बनाने का प्रस्ताव रखता है। कंस कहता है कि इस राज्याभिषेक के अवसर पर मथुरा में एक महोत्सव का आयोजन किया जायगा। किन्तु अक्रूर कंस की चालों को समझते हैं। अक्रूर कहते हैं कि वह राजा शूरसेन के सेवक हैं और सेवक कभी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकता है। इसलिये कंस महाराज शुरसेन के पुत्र वसुदेव को युवराज घोषित करे। कंस एक शर्त के साथ इसपर सहमति देने को तैयार होता है। वह देवकी के आठवें पुत्र कृष्ण को जहरीला काँटा बताते हुए उसे रास्ते से हटाने की बात अक्रूर से कहता है। कंस अक्रूर से कृष्ण को मथुरा लाने को कहता है किन्तु अक्रूर कंस के षडयन्त्र में शामिल होने से मना कर चले जाते हैं।
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